जीवन के उस लक्ष्यबोध को, नई मिली थी परिभाषा
अंतर्मन के अनुरोध की नहीं मिटी थी अभिलाषा।
तेरे उन झूठे वादों पर मैंने था विश्वास किया
अन्न सरीखे पुञ्जों को तज, मैंने था उपवास किया।
तुमने मुझको कथा सुनाई, अपने अकथित पृष्ठों की
मैंने उसको मान लिया था, रेख समझकर कष्टों की।
तुमने प्रेम किया था उससे, जो तन-वैभव पर मिटता था
मैंने प्रेम किया था उससे, जो स्वप्न लोक में बसता था।